बंगाल 1947
29 मार्च 2024 को रिलीज हुई फ़िल्म ‘बंगाल 1947’ का ट्रेलर देखा…तो एकबारगी लगा, यह मूवी भी कश्मीर फाइल्स, केरला स्टोरी, अजमेर फाइल्स की कड़ी की ही अगली फिल्म है। हालाँकि बेवजह जिस तरह का प्रोपेगैंडा इन फिल्मों को लेकर खड़ा किया गया वह फ़िज़ूल ही था। वे फिल्में भी आपके सामने इतिहास के काले स्याह से सने पन्नों को उजागर करती हैं। और सच्चाई हमेशा कड़वी होती है।
फिल्म की पृष्टभूमि
खैर, बात इस फ़िल्म की हो रही है तो, यह फ़िल्म आपके सब पूर्वानुमानों पर चोट करती है।
नाम के अनुसार ही फ़िल्म शुरू होती है, 1947 में देश के विभाजन के समय की उथल-पुथल और अराजकता से घिरे बंगाल के एक हिस्से से। जहाँ प्रेम की संभावना भी है।
फिल्म की कहानी
फ़िल्म का नायक मोहन जो कि उच्च जाति के एक जमींदार परिवार में जन्मा नौजवान है। जिसका जमींदारी के काम से दलितों की बस्ती में जाना होता है। जहाँ दलित समाज के लोग उसे अपने ही समाज के उस गाँव मे पढ़ाने के लिए आने वाला मास्टर समझ बैठते है। मोहन गाँव वालों को शिक्षा की जरूरत समझ वहीं रह कर गांव के लोगों को शिक्षित करना शुरू कर देता है। वहीं उसकी क्लास में आ कर पढ़ने आने वाली लड़की शबरी से वह प्रेम कर बैठता है। जबकि उसका विवाह दुसरे जमींदार परिवार में पहले ही तय हो चुका है। उसकी मंगेतर भी उंसके प्रेम में डूबी हुई है।
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गाँव में विभाजन को लेकर उथल-पुथल चल रही है। गांव में दलित और मुस्लिमों को भड़काने के लिए मौलाना, और दलित समाज के नेता धर्म और जातिवाद की आग लगाने के लिए क्षेत्र में अक्सर आया करते हैं।
इस माहौल में मोहन मुस्लिमों और दलितों के भ्रम दूर कर समाज में पड़ सकने वाली खाई को पाटने का प्रयास करता है। वह कामयाब होता है नहीं! वह देखने लायक है।
समीक्षा
यहाँ एक बात का जिक्र करना आवश्यक है। आज-कल सोशल मीडिया में धर्म और जाति के नाम पर समाज में जो वैमनस्य फैलाया जा रहा है। फ़िल्म अपने मारक संवादों से उन पर गहरी चोट करती है।
फ़िल्म ‘केरला स्टोरी’ में नायिका अपनी धर्म और संस्कृति के बारे में न बताए जाने पर अपने पिता से सवाल करती है। और यदि अभिवावकों के पास भी जानकारी न हो तो वह क्या करें? कम से कम इस फिल्म को दिखा उस कमी को पूरा किया जा सकता है। इस फ़िल्म के द्वारा ये काम बेफिक्र होकर हिंदु भी कर सकते हैं, और मुस्लिम भी।
मुख्य कलाकार
नायक के रोल में अंकुर ने अपने अभिनय से फ़िल्म में चार चांद लगा दिए है। शबरी के रोल में सुरभि ने भी अच्छा काम किया है। तवायफ के रोल में देवोलिना भटाचार्जी ने अपने छोटे से रोल में ही अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। अन्य अहम रोल्स में अनिल रस्तोगी, सोहिला कपूर, प्रमोद पवार, अतुल गंगवार, आदित्य लाखिया, योगेंद्र चौबे, कृष्णा श्रीवास्तव, विक्रम आदि कलाकारों ने अपनी किरदारों को बखुबी निभाया है।
अन्य क्रेडिट्स
फ़िल्म का संगीत दिया है अभिषेक रे ने, जो कि न सिर्फ कर्णप्रिय है बल्कि एक गाने ‘चलो सखी सौतन के घर चलिहें’ ने फ़िल्म में जान डाल दी है। जो फ़िल्म में चलते द्वंद को दिशा देता है। दूसरा गीत ‘मिलन होगा कब जाने’ फ़िल्म की सिचुएशन पर फिट बैठता है। जिन्हें लिखा है, गीतकार दिव्येश मोगरा ने। इन्हें आवाज दी है, प्रतिभा सिंह , श्याम जोशी और खुद संगीतकार अभिषेक रे ने।

फिल्म के निर्माता हैं सतीश पांडे, ऋषभ पांडे और आकाशदीप लामा। जिन्होंने नाटक ‘शबरी के मोहन’ को आधार बना कर एक दमदार कंटेंट को लेकर फ़िल्म बनाने का जोखिम मोल लिया है। इंटरवल से पहले फ़िल्म की धीमी गति को नजरअंदाज कर दिया जाए तो वे इसमें काफी हद वे सफल भी हुए हैं।
फिल्म को सभी धर्म और जाति के लोगों को अवश्य देखना चाहिए। ताकि सोशल मीडिया द्वारा चलाई वैमनस्यता पर लगाम लगाई जा सके।
प्रताप सिंह।
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